बुलंदी
चोट शरीर पे कहीं भी लगे
सबसे पहले दिमाग झन्नाता है
ये चोटें तो मस्तक पे ली हैं
फिर भी दिल्ली में क्यूं सन्नाटा है
कश्मीर हमारा जल रहा है धू धू
सत्ता के गलियारों में मस्ती पगी है।
जाहिर है साजिश में विदेशी हाथों का होना
पर इसका रोज-रोज क्या रोना धोना
मर्द हो, तो उठो ठोकर मार के
दीवल पर बंदूके क्यों टंगी है।
कोई सृडान से अफगानिस्तान से आया हो
उसने इस्लामाबाद में प्रशिक्षण पाया होगा
पहले चौराहे पे लाकर खत्म करो उन्हें
जो इन्हें बुलाने वाले जयचन्दी हैं।
मानवाधिकारों की बातें आजकल बहुत छपती हैं
इन्हें हवा देने वाले यहीं के कुछ खबरी हैं
खाते हैं यहां का, गाते हैं वहाँ का
काले साहब हैं ये, मैले पंथी हैं।
कोई समस्या नहीं जिसका समाधान न हो
हारता है वही जो सावधान न हो
मन का जोर पैदा करो, कूच का हुक्म दो
देशभक्ति से चमकती मेरे सैनिक की बर्दी है।
देश अब और नहीं टूटेगा, बहुत हो चुका
छलना से प्रवंचना से घड़ा भर चुका
शासन घुटने टेके तो टेकता रहे
जनता के हौसलों में हिमालय सी बुलंदी है।

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