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विदुर नीति||vidhur niti in hindi||

विदुर नीति 


  • ये छः इंद्रियाँ बहुत ही चंचल हैं, इनमें से जो-जो इंद्रिय जिस-जिस विषय की ओर बढ़ती है, वहाँ-वहाँ बुद्धि उसी प्रकार क्षीण होती है, जैसे फूटे घड़े से पानी सदा चू जाता है।
  • विद्या, तप, इंद्रिय-निग्रह और लोभ-त्याग के सिवा और कोई शांति का उपाय नहीं है।
  • बुद्धि से मनुष्य अपने भय को दूर करता है, तपस्या से महत्त पद प्राप्त होता है, गुरु शुश्रुषा से ज्ञान और योग से शांति पाता है। 
  • मोक्ष की इच्छा रखने वाले मनुष्य दान के पुण्य का आश्रय नहीं लेते, वेद के पुण्य का भी आश्रय नहीं लेते, किंतु निष्काम भाव से राग द्वेष से रहित हो इस लोक में विचरते रहते हैं।
  •  सम्यक् अध्ययन, न्यायोचित युद्ध, पुण्य कर्म और अच्छी तरह की हुई तपस्या के अंत में सुख की वृद्धि होती है। 
  • आपस में फूट रखने वाले लोग अच्छे बिछौने से युक्त पलंग पाकर भी कभी सुख की नींद नहीं सो पाते, उन्हें स्त्रियों के पास रहकर तथा संत पुरुषों द्वारा की हुई स्तुति सुनकर भी प्रसन्नता नहीं होती। 
  • जो परस्पर भेदभाव रखतें हैं, वे कभी धर्म का आचरण नहीं करते। सुख भी नहीं पाते। उन्हें गौरव नहीं प्राप्त होता तथा शांति की वार्ता भी नहीं सुहाती। 
  • हित की बात भी कही जाए तो उन्हें अच्छी नहीं लगती। उनके योग क्षेम की भी सिद्धि नहीं हो पाती। हे राजन भेद-भाव वाले पुरुषों की विनाश के सिवा और कोई गति नहीं है।
  • जैसे गौओं में दूध, ब्राह्मण में तप और युवती स्त्रियों में चंचलता का होना संभव है, उसी प्रकार अपने जाति बंधुओं से भय होना संभव ही है।
  • नित्य सींचकर बढ़ाई हुई पतली लताएँ बहुत होने के कारण बहुत वर्षों तक नाना प्रकार के झोंके सहती हैं, यही बात सत्यपुरुषों के विषय में भी समझनी चाहिए।(वे दुर्बल होने पर भी सामूहिक शक्ति से बलवान हो जाते हैं।)
  • जलती हुई लकड़ियाँ अलग होने पर धुआँ फेकती हैं और एक साथ होने पर प्रज्वलित हो उठती हैं और एकता होने पर सुखी रहते हैं। 
  • जो लोग ब्रह्मणों, स्त्रियों, जाति वालों और गौओं पर ही शूरता प्रकट करते हैं, वे डण्ठल से पके हुए फलों की भांति नीचे गिरते हैं। 
  • यदि वृक्ष अकेला है तो वह बलवान्, दृढ़मूल तथा बहुत बड़ा होने पर भी एक ही क्षण में आँधी के द्वारा बलपूर्वक शाखाओँ सहित धराशयी किया जा सकता है। 
  • किंतु जो बहुत से वृक्ष एक साथ रहकर समूह के रूप में खड़ें हैं, वे एक दूसरे के सहारे बड़ी से बड़ी आँधी को भी सह सकते हैं। 
  • इसी प्रकार समस्त गुणों से संपन्न मनुष्यों को भी अकेले होने पर शत्रु अपनी ताकत के अंदर समझते हैं, जैसे अकेले वृक्ष की वायु। 
  • किंतु परस्पर मेल होने से और एक दूसरे को सहारा मिलने से जाति वाले लोग इस प्रकार वृद्धि को प्राप्त होते हैं, जैसे तालाब में कमल।
  • ब्राह्मण. गौ, कुटुम्बी, बालक, स्त्री, अन्नदाता और शरणागत- ये अवध्य होतें हैं। 
  • मनुष्य में धन और आरोग्य को छोड़कर दूसरा कोई गुण नहीं हैं, क्योंकि रोगी तो मुर्दे के समान है। 
  • जो बिना रोग के उत्पन्न, कड़वा, सिर में दर्द पैदा करने वाला, पाप से संबद्ध, कठोर, तीखा और गरम है, जो सज्जनों द्वारा पान करने योग्य है और जिसे दुर्जन नहीं पी सकते- उस क्रोध को आप पी जाइये और शांत होईये। 
  • रोग पीड़ित मनुष्य मधुर फलों का आदर नहीं करते, विषयों में भई उन्हें कुछ सुख या सार नहीं मिलता। रोगी सदा ही दुखी रहते हैं, वे न तो धन संबंधी, भोगों का और न सुख का अनुभव करते हैं। 

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