महाराणा प्रताप और वीर बालक दुध्दा
उन दिनों की बात है, जब महाराणा प्रताप और मुगल बादशाह अकबर के बीच युद्ध चल रहा था। उन्हीं दिनों महाराणा प्रताप राजस्थान की पूंगा पहाड़ियों में अपने परिवार और बहादुर सैनिकों के साथ एक गुफा में डेरा डाले हुए थे। पूंगा पहाड़ियों में भील जाति निवास करती थी। जब भीलों के मुखिया को ज्ञात हुआ कि उनके बीहड़ क्षेत्र में महाराणा प्रताप ने अपने सैनिकों के साथ डेरा डाला हुआ है तो वह अपने साथियों के साथ राणा जी से मिलने गया और उनसे निवेदन किया कि आप जब तक हमारे क्षेत्र में हैं, तब तक आपके लिए रोटियां भेजने की जिम्मेदारी हमारी है। पहले तो राणा जी ने नम्रता पूर्वक ऐसा करने के लिए मना कर दिया लेकिन फिर भील मुखिया के बार-बार के अनुरोध को वह अस्वीकार नहीं कर सके। वापस लौटकर भील मुखिया ने अपने समाज में यह मुनादी करा दी कि आज से हम बारी-बारी से हर घर से राणा जी को रोटियां भेजा करेंगे।
इसी क्रम में एक दिन बालक दुद्धा के घर की बारी आ गई। दुद्धा के घर में उस दिन खाने को कुछ भी नहीं था, लेकिन अपनी बारी के लिए वह मना भी नहीं कर सकते थे। इसलिए दुद्धा की मां पड़ोस के घर से आटा मांगकर ले आई और रोटियां बनाकर कपड़ें की पोटली में बांधकर दुद्धा को देते हुए बोली, ‘जा बेटा, यह रोटियां राणा जी को दे आ।’ बालक दुद्धा ने अपनी मां के हाथों से रोटियों की पोटली ली और कूदता-फांदता उन पहाड़ियों की ओर चल दिया जहां राणा जी ठहरे हुए थे। जब वह जंगल के बीच में से गुजर रहा था तो राणा जी की घात में छिपे हुए एक मुगल सैनिक की दुद्धा पर नजर पड़ गई। उसने आवाज देकर बालक दुद्धा को रुकने को कहा, बालक दुद्धा सैनिक को सामने देखकर घबरा गया और रुकने के बजाए तेजी से भागने लगा। यह देखकर मुगल सैनिक भी उसके पीछे-पीछे भागने लगा, एक स्थान पर जब वह सैनिक बालक दुद्धा के समीप पहुंच ही गया था, अचानक उसे ठोकर लगी और वह नीचे गिर पड़ा, लेकिन गिरते-गिरते उसने क्रोध में अपनी तलवार चला दी, जिससे बालक दुद्धा का दांया हाथ कटकर अलग हो गया। बलाक दुद्धा ने हिम्मत नहीं हारी औरअपने कटे हुए हाथ पर नजर डालकर, बायें हाथ में रोटियों की पोटली थामे दुगनी गति से दौड़ने लगा और थोड़ी ही देर में वह झाड़ियों के बीच में से गुजरते हुए मुगल सैनिक की आंखों से ओझल हो गया।
जब बालक दुद्धा हांफते कराहते राणा जी के पास पहुंचा तो उसकी हालत ठीक नहीं थी, फिर भी किसी तरह से वह हिम्मत जुटाते हुए बोला, ‘राणा जी, मां ने आपके लरिए रोटियां भेजी हैं’। कठोर ह्दय वाले राणा जी भी बालक दुद्धा की हालत देखकर दुःखी हो गए, उनकी आंखों से आंसूओं की अविरल धार बहने लगी। उन्होंने तुरंत नीचे गिरते हुए बालक दुद्धा को अपने मजबूत हाथों से संभाला और रुंधे स्वर में बोले, बेटा ऐसी हालत में रोटिया लाने की क्या जरूरत थी, जबकि मुगल सैनिक आसपास में घात लगाये बैठे थे?
बालक दुद्धा से अब अपना दर्द सहा नहीं जा रहा था, फिर भी किसी तरह से हिम्मत जुटाते हुए बोला, राणा जी, आप जिस वीरता से हमारी रक्षा के लिए मुगलों से लड़ रहे हैं, उसके सामने मेरी यह दशा कुछ भी मायने नहीं रखती। मां ने आपको रोटियां पहुंचाने को कहा था, इसलिए आना तो था ही। कहते-कहते बालक दुद्धा ने राणा जी के हाथों में अपने नन्हें प्राण त्याग दिए। उसका यह अमूल्य बलिदान आज भी पूंगा की बीहड़ क्षेत्र की भील जनजाति के बीच एक कभी न भूलने वाले अमूल्य योगदान के रूप में जाना जाता है। उसके महान बलिदान को याद करके पूंगा की बीहड़ पहाड़ियां भी कभी-कभी सिसकने लगती हैं।
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